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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

।। दसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

जमानिया राज में आज बड़ा ही हड़कम मचा हुआ है क्योंकि सुबह ही राजमहल की चौमुहानी पर राजा के खास मुसाहिब और मित्र तथा जमानिया के प्रसिद्ध रईस दामोदरसिंह की लाश पाई गई है जिसके सर का पता न था। सारे शहर में इस बात का कोलाहल सा मचा हुआ है और जगह-जगह लोग इकट्ठे होकर इसकी चर्चा करते हुए अफसोस के साथ कह रहे हैं, ‘‘हाय-हाय, इस बेचारे की जान न जाने किस हत्यारे ने ली! यह तो किसी के साथ दुश्मनी करना जानता ही न था, फिर किस कारण इसकी यह दुर्दशा हुई!’’ केवल एक यही नहीं बल्कि इसे लेकर और भी कई प्रकार की झूठी और सच्ची खबरें शहर में उड़ रही हैं जिनमें यदि बुद्धिमानों को नहीं तो अनपढ़ और अनजानों को अवश्य विश्वास हो रहा है। कोई इसे किसी प्रेत की कार्रवाई समझता है तो कोई डाकू-लुटेरों की। कोई इस काम को किसी षड्यंत्र का फल बताता है तो कोई किसी दूसरे राजा की करतूत कहता है, तथा यह बात भी रह-रहकर किसी-किसी के मुँह पर सुनाई पड़ती है कि—‘इसी प्रकार रोज शहर के एक रईस की जान ली जायगी और अन्त में हमारे राजासाहब भी इसी तरह पर मारे जायेंगे! मगर ऐसी बातों पर विश्वास करने वाले बहुत ही कम पाये जाते हैं।

खैर जाने दीजिए, इन बातों में तो कोई तत्त्व नहीं है और न इन अनपढ़ लोगों में इतनी बुद्धि ही है कि किसी गूढ़ मामले को समझ सकें, हम तो आपको लेकर खास राजा साहब के महल में चलते हैं और देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है। खास महल की एक लम्बी-चौड़ी बारहदरी में राजा गिरधरसिंह सुस्त और उदास बैठे हुए हैं। उनकी आँखों से रह-रहकर आँसू टपक पड़ते हैं जिन्हें वे रूमाल से पौंछते जाते हैं।

बगल ही में संगमर्मर की एक बड़ी चौकी पर दामोदरसिंह की सिर कटी लाश पड़ी हुई है जिसकी तरफ बार-बार उनकी निगाह घूम जाती है और वे लम्बी साँस लेकर गर्दन फेर लेते हैं। उनकी गद्दी से कुछ दूर हट कर बाईं तरफ हम दारोगा साहब को बैठे हुए देख रहे हैं जिसके बाद दो-तीन और मुसाहिब भी गरदन झुकाए बैठे हैं। राजा साहब की तरह दारोगा की आँखों से भी आँसू गिर रहे हैं। बार-बार वह आँसू पोंछ कर और दिल सम्हाल कर राजा साहब से कुछ कहना चाहता है जो उसकी तरफ कुछ गौर के साथ देखते हुए अपनी किसी बात का जवाब सुना चाहते हैं पर उसकी आँख के आँसू उसे बोलने नहीं देते और बार-बार मुँह खोल कर भी कोई बात बाहर निकाल नहीं सकता।

आखिर बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हालकर दारोगा ने कहा, ‘‘महाराज, मैं क्योंकर बताऊँ कि यह काम किसका है। किस दुष्ट पापी ने हमारे खैरखाह दामोदरसिंह की जान ली यह मैं कैसे जान सकता हूँ, हाँ इतना अवश्य कह सकता हूँ कि चाहे मेरी जान इसके लिए चली जाय तो कोई परवाह नहीं पर मैं इनके खूनी का पता अवश्य लगाऊँगा।

महा० : सो तो ठीक है मगर मेरी बात का जवाब आपने नहीं दिया। क्या उस गुप्त कमेटी का पता हम लोगों को कुछ नहीं लगेगा जिसके विषय में मैं बहुत कुछ सुन चुका और आपको सुना भी चुका हूँ? मुझे विश्वास है कि यह काम भी उसी कमेटी का है और उसी ने (लाश की तरफ बताकर) इस बेचारे की जान ली है।

इतना कहकर महाराज कुछ रुके, मानो दारोगा से कुछ जवाब पाने की आशा करते हों, मगर जब उसने कुछ न कहकर सिर झुका लिया तो बोले, ‘‘और मुझे बार-बार यह सन्देह होता है कि आप उस कम्बख्त कमेटी का हाल कुछ न कुछ ज़रूर जानते हैं।’’

महाराज की बात सुन दारोगा भीतर ही भीतर काँप गया मगर अपने को संभाले रह कर बोला, ‘‘न मालूम महाराज के दिल में किस तरह ऐसा बेबुनियाद खयाल जड़ पकड़ गया! पर खैर, यदि महाराज का ऐसा ही खयाल है तो मैं भी प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि अगर ऐसी कोई कमेटी वास्तव में हमारी रियासत में मौजूद है तो मैं शीघ्र ही इसका पूरा-पूरा पता लगाकर महाराज को बताऊँगा।’’

महा० : (कुछ संतोष के साथ) बेशक आप ऐसा करें और बहुत जल्द पता लगाकर मुझे बतायें कि यह कमेटी क्या बला है और क्यों इस तरह मेरे पीछे पड़ गई है। अगर आप इसका ठीक-ठीक हाल मुझे बतावेंगे तो मैं बहुत खुश हूँगा!

दारोगा : (सलाम करके) बहुत खूब!

महा० : (बाकी मुसाहिबों और दरबारियों की तरफ देख कर) और आप लोग भी इस काम में कोशिश करें, जो कोई भी यह काम पूरा करेगा उससे मैं बहुत खुश हूँगा और उसे मुँहमाँगा इनाम मिलेगा।

इतना कह राजा गिरधरसिंह उठ खड़े हुए और दामोदरसिंह की लाश को उनके रिश्तेदारों के सुपुर्द करने की आज्ञा देकर आँसू बहाते हुए महल की तरफ चले गये। दरबारी लोग भी इस विचित्र कमेटी और महाराज की नई आज्ञा के विषय में बातें करते हुए बिदा हुए और दारोगा लाश का बन्दोबस्त करने के बाद किसी गहरे सोच में सिर झुकाए हुए अपने घर की तरफ रवाना हुआ।

महल में पहुँच राजा साहब सीधे उस तरफ बढ़े जिधर कुँअर गोपालसिंह रहते थे। गोपालसिंह उसी समय संध्या-पूजन समाप्त कर उठे ही थे जब महाराज के आने की खबर उन्हें लगी और वे घबराए हुए उनकी तरफ बढ़े क्योंकि दामोदरसिंह की लाश के पाये जाने की खबर उन्हें भी लग चुकी थी।

महाराज ने गोपालसिंह का हाथ पकड़ लिया और उनके बैठने के कमरे की तरफ बढ़े। नौकरों को हट जाने का इशारा कर वे एक कुर्सी पर जा बैठे और गोपालसिंह को अपने पास बैठने का हुक्म दिया।

कुछ देर सन्नाटा रहा और दामोदरसिंह की याद में महाराज आँसू बहाते रहे, इसके बाद अपने को सम्हाल कर बोले, ‘‘तुमने दामोदरसिंह के मरने की खबर सुनी ही होगी?’’

गोपाल : जी हाँ, अभी कुछ ही देर हुई यह दुखदायी खबर मुझे मालूम हुई है। न जाने किस हत्यारे ने उन बेचारे की जान ली!

महाराज : तुम यह किसका काम खयाल करते हो?

गोपाल : (कुछ सोच कर) शायद दामोदरसिंह का कोई दुश्मन हो?

महाराज : नहीं नहीं, यह काम दामोदरसिंह के किसी दुश्मन का नहीं है बल्कि मेरे और जमानिया राज्य के दुश्मनों का है। बेटा, अब तो तुम खुद सोचने-विचारने लायक हो गये हो। क्या इधर कुछ दिनों से जो-जो बातें देखने-सुनने में आ रही हैं उन पर ध्यान देने पर यह नहीं कहा जा सकता कि हम लोगों का कोई दुश्मन पैदा हुआ जो हमारे खिलाफ काम कर रहा है?

गोपाल : बेशक इधर की घटनाओं को देखकर तो यही कहने की इच्छा होती है।

महा० : हाय हाय, हमारे खैरखाह लोग इस तरह मारे जायें और हम कुछ न कर सकें, हमारे जिगर के टुकड़े इस तरह हमसे अलग कर दिये जायें और हम लोग हाथ न उठा सकें! ओफ, हद हो गई!

दिल के कमजोर राजा गिरधरसिंह इतना कह फिर आँसू बहाने लगे जिसे देख गोपालसिंह हाथ जोड़कर बोले, ‘‘पिताजी, इस तरह सुस्त हो जाने से काम न चलेगा, हम लोगों को दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए। मैंने यह खबर सुनते ही अपने मित्र इन्द्रदेव के पास अपना आदमी भेजा है, और वे बड़े ही तेज ऐयार हैं, जरूर कुछ न कुछ पता लगावेंगे।’’

महा० : बेशक इन्द्रदेव अगर इस काम को अपने जिम्मे ले ले तो अवश्य बहुत कुछ कर सकता है, और उसे करना भी चाहिए क्योंकि दामोदरसिंह उसके ससुर ही थे।

गोपाल : वे जरूर अपने ससुर के खूनी का पता लगावेंगे और मैं खुद उनकी मदद करूँगा। अब बेफिक्री के साथ बैठे रहने का ज़माना बीत गया और मुझे तो यह मालूम होता है कि इतने ही पर खैर नहीं है, अभी हम लोगों पर कोई और भी मुसीबत आने वाली हैं।

महा० : बेशक ऐसी ही बात है, यह मामला यहाँ ही तक नहीं रहेगा। मगर बेटा, तुम होशियार रहना और जान-बूझ कर अपने को मुसीबत में न फँसाना क्योंकि मैंने यह सुना है कि हम लोगों के बर्खिलाफ कोई कमेटी भी बनी है जिसका यह काम हो सकता है।

गोपाल : जी हाँ मैंने भी इस विषय में कुछ सुना है मगर यह खबर कहाँ तक सच है सो कुछ नहीं कह सकता।

महा० : मैंने दारोगा साहब के सुपुर्द इस कमेटी का पता लगाने का काम सौंपा है, उम्मीद है कि वे जल्दी ही कुछ न कुछ पता लगावेंगे।

गोपाल : अफसोस! इस वक्त चाचाजी (भैयाराजा) न हुए, नहीं तो वे बहुत कुछ कर सकते थे, इस कमेटी का जिक्र उन्होंने ही पहिले पहल मुझसे किया था।

महा० : न जाने शंकरसिंह कहाँ चले गए, मुझसे बिगड़कर जो गए तो फिर नजर ही न आए!

गोपाल : मैं कह तो नहीं सकता पर आपके बर्ताव से उनके दिल को बड़ी चोट पहुँची।

महा० : मेरे बर्ताव से! मैंने भला क्या किया?

गोपाल : (रुकते हुए) यही कि उनके मुकाबिले में दारोगा साहब की इज्जत की। माना कि उन्हें दारोगा साहब से कुछ चिढ़ हो गई थी और वे उनका विश्वास न करते थे पर तो भी क्या हुआ, वे फिर भी अपने ही थे और दारोगा साहब फिर भी एक नौकर ही। हम मान लेते हैं कि चाहे चाचाजी का दारोगा साहब पर झूठा शक ही क्यों न हो पर एक बार उनकी बात मानकर पीछे उनकी गलती दिखाना ज्यादा वाजिब होता। जैसा बर्ताव हमारे यहाँ से उनके साथ किया गया उसे देख कर भी अगर वे चले न जाते तो ही ताज्जुब की बात थी! खैर अब जो हुआ सो हो गया!

गोपालसिंह की बात सुन राजा साहब ने सिर झुका लिया और कुछ जवाब न दिया। गोपालसिंह ने भी यह देख बात का सिलसिला बदलने के खयाल से कहा, ‘‘हमारे यहाँ भी तो कई ऐयार हैं, वे सब क्या किया करते हैं? बिहारीसिंह और हरनामसिंह को आपने दामोदरसिंह के खूनी का पता लगाने का हुक्म दिया?’’

महा० : (चौंक कर) नहीं, उनकी तरफ तो मेरा खयाल ही नहीं गया। मैं अभी उन्हें बुलाता हूँ।

सुन गोपालसिंह उठे और एक खिदमतगार को जो आवाज की पहुँच के बाहर खड़ा हुआ था बुलाकर महाराज का हुक्म सुना जल्दी दोनों ऐयारों को ले आने का हुक्म दिया। कुछ ही देर बाद हरनामसिंह हाजिर हुआ और महाराज तथा कुंअर साहब को अदब से सलाम कर हाथ जोड़ बोला, ‘‘आज्ञा?’’

गोपाल : बिहारीसिंह कहाँ है?

हरनाम : वे दामोदरसिंहजी वाली घटना का हाल सुन खोज लेने उधर ही कहीं गए हैं।

महा० : ठीक किया, तुम भी जाओ और बहुत जल्द पता लगा कर मुझे बताओ कि यह काम किसका है। बस सीधे चले जाओ।

‘‘बहुत खूब!’’ कह कर हरनामसिंह ने झुककर सलाम किया और पीछे पाँव लौटा। उसके चले जाने के बाद गोपालसिंह ने अपने पिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘महाराज ने भी अभी तक कदाचित नित्य कृत्य से छुट्टी नहीं पाई...।।’’

महा० : कहाँ, सुबह से तो इसी तरद्दुद में पड़ा हुआ था, अब जाता हूँ। (रुक कर) क्या कहूँ, तुम्हारा ब्याह हो जाता तो तुम्हें राज्य दे मैं तपस्या करने चला जाता, अब इस संसार से मुझे बिल्कुल विरक्ति हो गई है।

कुछ और बातचीत के बाद महाराज जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में पड़े और गोपालसिंह भी आवश्यक काम में लग गए।

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